कई बार बड़े चिंतकों-विचारकों को पढ़ते हुए आप उनके समय में पहुँच जाते हैं। सोचने लगते हैं कि क्या जमाना रहा होगा वह! ऐसा सोच, ऐसे विचार! कई बार आप सोचते हैं कि काश वे इस दुनिया में होते, जिसमें आप रह रहे हैं। आप उनसे मिल सकते, बात कर सकते। लेकिन अकसर ऐसा भी होता है कि लोगों का संकीर्ण सोच देख कर आपका दिल कहता है कि अच्छा हुआ वे लोग जल्दी चले गए, वरना न जाने उनका क्या हाल होता।
न जाने क्या सोच और देख कर मिर्जा ग़ालिब ने कहा कि ‘ईमाँ मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र/ काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे।’ दरअसल, ग़ालिब को पढ़ कर समझ में आता है कि वे बने-बनाए मूल्यों के शायर नहीं थे। उनकी पहचान उन सवालों से होती है, जो उन्होंने उन मूल्यों पर उठाए थे, जो उन्हें विरासत में मिले थे। उन मूल्यों में धर्म, समाज, कल और आज सब शामिल थे। उन्हें पढ़ते हुए मुझे अकसर लगा कि अच्छा हुआ वे उस युग में थे जब उन्हें सुनने वाले सुनने की योग्यता रखते थे। अगर आज होते तो दोनों के हाथों मार खाते, मुसलमान उन पर कुफ्र का फतवा लगाते और दूसरी आस्थाओं वाले (यानी ‘कुफ्र’ वाले) उन्हें अपनी तरह से सताते।
मिर्जा साहब का एक शेर यों है : ‘बंदगी में भी वो आजाद-ओ-खुदबीं है कि हम/ उल्टे फिर आए दरे-काबा अगर वा न हुआ।’ यकीनन उस जमाने के मौलवी बहुत आला दर्जे के रहे होंगे, वरना आज का मौलवी तो यह सुन कर लाल-पीला हो गया होता, कहता कि काबा तो खुदा का घर है, वह किसी शराबी-जुआरी के स्वागत में क्यों खुला रहेगा। उनका एक और शेर : ‘वफादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले ईमाँ है/ मरे बुतखाने में तो काबे में गाड़ो बरहमन को।’ मिर्जा साहब आज यह शेर कहते तो पता नहीं क्या हश्र होता उनका। बरहमन उनके घर पहुँच जाता और कहता, गालिब, तुम पागल हो गए हो क्या, हम तो अपने मृत शरीर जलाते हैं और तुम उसे काबे में गाड़ने की बात कह कर सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश कर रहे हो!...
इस तरह से सोचना इसलिए जरूरी हो गया है कि निदा फाज़ली आज के शायर हैं और वे खरी बात लिख कर विवादों के घेरे में हैं। पहले उनका एक शेर मुल्लाओं को पसंद नहीं आया - ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें/ किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।’ अकसर निदा दोस्तों के बीच और मंच से भी यह किस्सा सुनाते हैं कि उन पर आरोप लगा कि रोते हुए बच्चे को हँसाना मस्जिद में इबादत का बदल नहीं हो सकता। निदा इसका जवाब भी देते हैं कि दरअसल, लोग अब पढ़ते-लिखते नहीं, साहित्य और इतिहास पर उनकी नजर नहीं।
ये आरोप लगाने वाले शायद मीर के युग में मुसहफी नाम के शायर से नावाकिफ हैं, जिनका शेर है : ‘काबा अगरचे टूटा तो क्या जाए गम है शेख/ कुछ कस्रे-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा।’ यानी काबा टूटे तो फिर बन सकता है, लेकिन इंसान का दिल टूट कर नहीं जुड़ सकता। निदा फाज़ली ने तो केवल मस्जिद की बात की है, मुसहफी ने तो काबा (खुदा का घर) के टूटने की बात की थी। अच्छा हुआ कि वे भी धार्मिक उन्माद के इस दौर से पहले ही चल बसे। लेकिन यगाना चंगेजी इतने किस्मत वाले नहीं थे। उन्होंने जब लिखा कि ‘मैं कृष्ण का हूँ पुजारी अली का बंदा हूँ/ यगाना शाने-खुदा देखकर रहा न गया’ तो लखनऊ में उनका मुँह काला किया और गधे पर घुमाया गया।
निदा फाज़ली को लेकर नए विवाद की वजह उनका वह शेर है जो उन्होंने दिल्ली में आयोजित कौमी काउंसिल के मुशायरे में बाईस अप्रैल को सुनाया था - ‘उठ-उठ के मस्जिदों से नमाजी चले गए/ दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया।’ बीच मुशायरे में, जिसमें केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल भी मौजूद थे, दर्शकों के बीच से, निदा से इस शेर पर माफी माँगने का तकाजा किया गया। लेकिन निदा फाज़ली ने माफी नहीं माँगी और आगे पढ़ने से इनकार कर दिया। अच्छा ही किया उन्होंने, क्योंकि सुनने वाले अगर आज की अंतरराष्ट्रीय राजनीति से परिचित नहीं हैं तो उनके सामने बीन बजाने से क्या फायदा। अगर उन्हें नहीं मालूम कि आतंकवाद किस तरह से पाकिस्तान में मस्जिदें तोड़ रहा है, अफगानिस्तान और बगदाद में क्या कर रहा है, तो उनसे यह उम्मीद कि वे इस शेर में छिपे व्यंग्य और दर्द को समझेंगे, बेमानी कोशिश है। सरकार भी हमेशा वोट बैंक को खयाल में रखती है और हमेशा उन्हीं का साथ देती है, जो उसे वोट देते हैं। मगर जिगर मुरादाबादी के लफ्जों में : ‘उनका जो फर्ज है वो अहले-सियासत जाने/ मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।
(जनसत्ता, 4 मई 2013)