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इस हफ्ते विशेष अन्यत्र

देवेंद्रनाथ शर्मा का एकांकी
बाबर की ममता


• परवरदिगार! तेरी मेहरबानी से मैंने एक-से-एक मुश्किलों पर फतह हासिल की है। मैं हर गाढ़े वक्त पर तुझे पुकारता रहा हूँ और तू मेरी मदद करता रहा है। आज एक बार फिर इस मौके पर तेरी उस मेहरबानी की भीख माँगता हूँ। अपने बेटे की जान के बदले मैं अपनी जान हाजिर करता हूँ। तू मुझे बुला ले, लेकिन उसे अच्छा कर दे...।

• आज हमें एक ही बात का अफसोस है। जिसकी सारी उम्र लड़ाई के मैदान में कटी उसकी मौत बिस्तर पर हो रही है। हम लड़ते-लड़ते मरने के ख्वाहिशमंद थे। खुशकिस्मती से एक ऐसे मुल्क़ में पहुँच भी गए थे जहाँ बहादुरों की कमी नहीं थी — लेकिन वह अरमान...

• हिंदुस्तान बड़ा बुलन्द मुल्क है। यहाँ के राजपूतों के लिए हमारे दिल में बड़ी इज्जत है। वे दरसअल दिलेर और बहादुर हैं। मरना या मारना किसी को इनसे सीखना चाहिए।


भगवती प्रसाद वाजपेयी की कहानी
मिठाईवाला


राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की कहानी
कानों में कँगना


दूधनाथ सिंह की कहानियाँ
अम्माएँ
सरहपाद का निर्गमन

स्मरण

इरफान इंजीनियर
मेरे पिता की विरासत


यश मालवीय के गीत

अलिफ लैला
किस्सा तीसरे फकीर का
किस्सा जुबैदा का
किस्सा अमीना का
किस्सा सिंदबाज जहाजी का
सिंदबाद जहाजी की पहली यात्रा

पिछले हफ्ते
सियारामशरण गुप्त
कहानी
काकी

इला प्रसाद
कहानियाँ
उस स्त्री का नाम
मेज
बैसाखियाँ
समुद्र : एक प्रेमकथा
हीरो
गुड़िया का ब्याह
तूफान की डायरी
खिड़की
सेल
एक अधूरी प्रेमकथा

बेढब बनारसी
व्यंग्य
चिकित्सा का चक्कर

रविकांत की कविताएँ

अलिफ लैला
किस्सा तीन राजकुमारों और पाँच सुंदरियों का
मजदूर का संक्षिप्त वृत्तांत
किस्सा पहले फकीर का
किस्सा दूसरे फकीर का
किस्सा भले आदमी और ईर्ष्यालु पुरुष का

कुछ विचार
वर्जिनिया वूल्फ

अगर आप अपने बारे में सच नहीं बोल सकते, तो दूसरों के बारे में भी सच नहीं बोल सकते।

मेरी जड़ें हैं, फिर भी प्रवाहमान हूँ।

कुछ लोग पुजारियों के पास जाते हैं; कुछ कविताई करते हैं; मैं अपने दोस्तों के पास जाती हूँ।

जीवन को नजरअंदाज कर आप शांति नहीं पा सकते।

अगर किसी ने अच्छे से न खाया हो, तो वह न तो ठीक से सोच सकता है, न ही सो सकता है और न ही अच्छे से प्रेम कर सकता है।

औरत के रूप में मेरे पास कोई देश नहीं है, औरत के रूप में मेरा देश पूरी दुनिया है।

पुरुषों के लिए स्त्रियाँ क्यों इतनी ज्यादा दिलचस्प होती हैं जितने दिलचस्प पुरुष नहीं होते स्त्रियों के लिए?

किसी स्त्री को अगर कथा साहित्य लिखना हो तो उसके पास पैसा और अपना खुद का कमरा जरूर होना चाहिए।

जैसे-जैसे किसी की उम्र बढ़ती है, उसे अशिष्टता और ज्यादा भाने लगती है।

दूसरों की आँखें हमारे कैदखाने हैं; उनके विचार हमारी गुफाएँ।

जब कोई स्त्रियों के साथ मित्रवत हो सकता है, तब कितनी खुशी होती है - पुरुषों के साथ रिश्ते के मुकाबले यह रिश्ता कितना निजी और गुप्त होता है। क्यों न इसके बारे में ईमानदारी से लिखा जाए?

किसी भी पुरुष या स्त्री के लिए खाँटी महिला या पुरुष होना जानलेवा है : स्त्री को थोड़ा मर्दाना और पुरुष को थोड़ा जनाना होना चाहिए।

किसी यथार्थ की हत्या से कहीं बहुत ज्यादा मुश्किल किसी प्रेत की हत्या करना है।

अपने पिता पर निर्भर रहने की तुलना में अपने पेशे पर निर्भर रहना गुलामी का कम घिनौना रूप है।

पोशाक और युद्ध के बीच संबंध की तलाश करना मुश्किल नहीं है; आपकी सबसे बेहतरीन पोशाक वह है जिसे आप सैनिक की तरह पहनते हैं।

इस नजरिए का समर्थन करने के लिए पर्याप्त तर्क हैं कि हम कपड़ों को नहीं पहनते हैं, कपड़ें हमें पहनते हैं। हम उन्हें बाँह या छाती के आकार के मुताबिक बना सकते हैं, पर वे हमारे हृदय, हमारे दिमाग, हमारी जीभ को अपने अनुसार ढाल लेते हैं।

मेरा पैगाम मुहब्बत है
नाज़िम नक़वी

कई बार बड़े चिंतकों-विचारकों को पढ़ते हुए आप उनके समय में पहुँच जाते हैं। सोचने लगते हैं कि क्या जमाना रहा होगा वह! ऐसा सोच, ऐसे विचार! कई बार आप सोचते हैं कि काश वे इस दुनिया में होते, जिसमें आप रह रहे हैं। आप उनसे मिल सकते, बात कर सकते। लेकिन अकसर ऐसा भी होता है कि लोगों का संकीर्ण सोच देख कर आपका दिल कहता है कि अच्छा हुआ वे लोग जल्दी चले गए, वरना न जाने उनका क्या हाल होता।

न जाने क्या सोच और देख कर मिर्जा ग़ालिब ने कहा कि ‘ईमाँ मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र/ काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे।’ दरअसल, ग़ालिब को पढ़ कर समझ में आता है कि वे बने-बनाए मूल्यों के शायर नहीं थे। उनकी पहचान उन सवालों से होती है, जो उन्होंने उन मूल्यों पर उठाए थे, जो उन्हें विरासत में मिले थे। उन मूल्यों में धर्म, समाज, कल और आज सब शामिल थे। उन्हें पढ़ते हुए मुझे अकसर लगा कि अच्छा हुआ वे उस युग में थे जब उन्हें सुनने वाले सुनने की योग्यता रखते थे। अगर आज होते तो दोनों के हाथों मार खाते, मुसलमान उन पर कुफ्र का फतवा लगाते और दूसरी आस्थाओं वाले (यानी ‘कुफ्र’ वाले) उन्हें अपनी तरह से सताते।

मिर्जा साहब का एक शेर यों है : ‘बंदगी में भी वो आजाद-ओ-खुदबीं है कि हम/ उल्टे फिर आए दरे-काबा अगर वा न हुआ।’ यकीनन उस जमाने के मौलवी बहुत आला दर्जे के रहे होंगे, वरना आज का मौलवी तो यह सुन कर लाल-पीला हो गया होता, कहता कि काबा तो खुदा का घर है, वह किसी शराबी-जुआरी के स्वागत में क्यों खुला रहेगा। उनका एक और शेर : ‘वफादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ले ईमाँ है/ मरे बुतखाने में तो काबे में गाड़ो बरहमन को।’ मिर्जा साहब आज यह शेर कहते तो पता नहीं क्या हश्र होता उनका। बरहमन उनके घर पहुँच जाता और कहता, गालिब, तुम पागल हो गए हो क्या, हम तो अपने मृत शरीर जलाते हैं और तुम उसे काबे में गाड़ने की बात कह कर सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश कर रहे हो!...

इस तरह से सोचना इसलिए जरूरी हो गया है कि निदा फाज़ली आज के शायर हैं और वे खरी बात लिख कर विवादों के घेरे में हैं। पहले उनका एक शेर मुल्लाओं को पसंद नहीं आया - ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें/ किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।’ अकसर निदा दोस्तों के बीच और मंच से भी यह किस्सा सुनाते हैं कि उन पर आरोप लगा कि रोते हुए बच्चे को हँसाना मस्जिद में इबादत का बदल नहीं हो सकता। निदा इसका जवाब भी देते हैं कि दरअसल, लोग अब पढ़ते-लिखते नहीं, साहित्य और इतिहास पर उनकी नजर नहीं।

ये आरोप लगाने वाले शायद मीर के युग में मुसहफी नाम के शायर से नावाकिफ हैं, जिनका शेर है : ‘काबा अगरचे टूटा तो क्या जाए गम है शेख/ कुछ कस्रे-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा।’ यानी काबा टूटे तो फिर बन सकता है, लेकिन इंसान का दिल टूट कर नहीं जुड़ सकता। निदा फाज़ली ने तो केवल मस्जिद की बात की है, मुसहफी ने तो काबा (खुदा का घर) के टूटने की बात की थी। अच्छा हुआ कि वे भी धार्मिक उन्माद के इस दौर से पहले ही चल बसे। लेकिन यगाना चंगेजी इतने किस्मत वाले नहीं थे। उन्होंने जब लिखा कि ‘मैं कृष्ण का हूँ पुजारी अली का बंदा हूँ/ यगाना शाने-खुदा देखकर रहा न गया’ तो लखनऊ में उनका मुँह काला किया और गधे पर घुमाया गया।

निदा फाज़ली को लेकर नए विवाद की वजह उनका वह शेर है जो उन्होंने दिल्ली में आयोजित कौमी काउंसिल के मुशायरे में बाईस अप्रैल को सुनाया था - ‘उठ-उठ के मस्जिदों से नमाजी चले गए/ दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया।’ बीच मुशायरे में, जिसमें केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल भी मौजूद थे, दर्शकों के बीच से, निदा से इस शेर पर माफी माँगने का तकाजा किया गया। लेकिन निदा फाज़ली ने माफी नहीं माँगी और आगे पढ़ने से इनकार कर दिया। अच्छा ही किया उन्होंने, क्योंकि सुनने वाले अगर आज की अंतरराष्ट्रीय राजनीति से परिचित नहीं हैं तो उनके सामने बीन बजाने से क्या फायदा। अगर उन्हें नहीं मालूम कि आतंकवाद किस तरह से पाकिस्तान में मस्जिदें तोड़ रहा है, अफगानिस्तान और बगदाद में क्या कर रहा है, तो उनसे यह उम्मीद कि वे इस शेर में छिपे व्यंग्य और दर्द को समझेंगे, बेमानी कोशिश है। सरकार भी हमेशा वोट बैंक को खयाल में रखती है और हमेशा उन्हीं का साथ देती है, जो उसे वोट देते हैं। मगर जिगर मुरादाबादी के लफ्जों में : ‘उनका जो फर्ज है वो अहले-सियासत जाने/ मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।

(जनसत्ता, 4 मई 2013)

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